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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Sunday, April 28, 2013

श्री गोरक्षनाथ उत्पत्ति वर्णन



श्री मत्स्येन्द्रनाथजी ने योग में सम्यक् कुशलता प्राप्त करने के अनन्तर योग प्रचार में यथार्थता का बीज अंकुरित करने के लिये श्री महादेवजी की प्रेरणानुरोध से चिरकालावधिक समाधि में प्रवेश किया। सौभाग्य की बात है आपका यह समय कुशलता के साथ व्यतीत हो गया। इसके अनन्तर आपने कैलास से अन्य स्थल में भ्रमण करने की इच्छा से श्रीमहादेवजी के समक्ष प्रस्ताव किया। तत्काल ही अमोघ आशीर्वाद के सहित अनुकूल अनुमति मिलने पर श्रीमत्स्येन्द्रनाथ जी वहाँ से प्रस्थानित हुए और वे कुछकाल पर्यन्त इतस्ततः भ्रमण करते-करते श्री गंगाजी के तटस्थ प्रदेशों में आये। यहाँ से अम्बादेवी के स्थान में पहुँचे। वहाँ अतीव रमणीय ऐकान्तिक स्थान देखकर आपका चित्त अत्यन्त ही प्रसन्न हुआ। यही कारण था आप कुछ दिन तक वहीं निवास करते रहे। अनन्तर वहाँ से भी आप मार्तण्ड पर्वत पर पहुँचे और नागपत्र नामक एक वृक्ष के नीचे विश्रामकर सूर्य आदि देवताओं के निमित्त आपने एक अनुष्ठान किया जिसकी समाप्ति होने पर इन्द्रादि सभी देवता उपस्थित हुए। और प्रसन्नतापूर्वक वर देने के लिये उत्कण्ठित हुए कहने लगे कि हे योगिन् हम सब देवता तेरे ऊपर अत्यन्त प्रसन्न हैं। अतएव किसी अभीष्ट वर की याचना करो। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथ जी ने कहा कि यदि आप लोगों की ऐसी कृपा है और वर देना चाहते हैं तो आवश्यकता पड़ने पर हम शीघ्र उपस्थित होंगे यह वचन प्रदान करने की कृपा करो। यह सुन एकमति होकर सभी देवताओं ने तथास्तु-तथास्तु शद्ध की घोषणा कर वह वचन प्रदानित किया और स्वकीय विमानारूढ़ हो निज-निज स्थान को प्रस्थान किया। उधर कुछ काल मार्तण्ड पर्वत पर निवास कर मत्स्येन्द्रनाथजी ने फिर जान्हवी के तटस्थ प्रान्तों में विचरना आरम्भ किया। और शनैः-शनैः इधर-उधर के कतिपय मास पर्यन्त होने वाले भ्रमण के अनन्तर आप बंग देशस्थ मायागिरि नामक पर्वत पर पहुँचे। यहाँ भी कुछ काल व्यतीत कर फिर उड़ीसा देश की और प्रस्थानित हुए। वहाँ जाकर जगन्नाथपुरी में आपने श्री जगन्नाथजी के दर्शन करने के अनन्तर अनेक प्रान्तों को पार कर कुछ दिन में गोदावरी-गंगा के समीपवर्ती प्रदेश में पदार्पण किया। इसी प्रान्त में एक चन्द्रगिरि नामक नगर में जब आप पहुँचे तब तो आप भिक्षा के बहाने किसी अन्य असाधारण कार्य सम्पादित करने के लिये अलक्ष्य पुरुष के नाम की घोषणा करते हुए नगर में प्रविष्ठ हुए। और स्वकीय चिन्त्यकार्य साधनानुकूल गृह की अन्वेषणा करने लगे। इतने ही में सदाचारनिष्ठ वसिष्ठ गोत्र का एक सुराज नामक ब्राह्मण आपके सम्मुखीन हुआ। जो आपको देखते ही आपके चरणों में गिरा। और साष्टांग प्रणाम करने के पश्चात् वडे+ही आदर के सहित आपको अपने गृह पर ले गया। तथा अनेक प्रकार का भोजन तैयार कराकर एक स्वच्छ थाल में परोस स्वयं कार्यान्तर के लिये बाहर चला गया। साथ ही ब्राह्मणी को सचेत कर गया कि मैं किसी विशेष कार्य सम्पादन के अनुरोध से बाहर जाता हूँ तुम महात्माजी के सत्कार में कुछ उठा न रखना। यह सुनकर सरस्वतीजी ने सिर झुकाकर पति की आज्ञा स्वीकार की और मत्स्येन्द्रनाथजी की सेवा में विशेष चित्त दिया। अर्थात् मत्स्येन्द्रनाथजी के आगे भोजन का थाल रखकर स्वयं व्यजन (पंखा) ले वायु करने लगी। जिससे अतीवानन्द के साथ भोजन कर आप अत्यन्त प्रसन्न हुए। ठीक इसी अवसर में सरस्वती ने महात्मा जी को एक अन्य दिव्य आसन पर बैठाकर कुछ फल समर्पित किये। और पंखा ले फिर वायु करने के द्वारा उसने अपनी श्रद्धा की पराकाष्ठा दिखलाई। एवं अत्यन्त उदासीन हो नेत्रों में जल भरकर कुछ कहने के लिये उत्सुक हुई परं लज्जा के कारण कुछ भी न कह सकी। उसकी यह विचलित दशा देखकर मत्स्येन्द्रनाथ जी स्वयं ही पूछ उठे कि देवी कहिये अकस्मात् क्या हुआ। ऐसा कौन दुःख आ प्राप्त हुआ जिसने तुम्हारे हृदय को इतना त्रास दिया है। इस समय जो दुःख तुम्हें प्राप्त हुआ है उसे अवश्य प्रकट करो। मैं सत्य बोलता हूँ उसका निवारण करके ही तुम्हारे गृह का अन्न सार्थक करूँगा। तब आपका तथ्य वाक्य सुनकर उस पर विश्वास रखती हुई ब्राह्मणी ने कहा कि भगवन् आप समस्त वृत्तान्त जानते ही हैं तथापि मेरे से जो पूछते हैं तो मैं कह देती हूँ अन्य वस्तु तो आपकी महती कृपा से सभी पर्याप्त हैं। परन्तु कोई पुत्र ही नहीं है जिसके बिना हमारी यह सम्पत्ति किम्प्रयोजन है। अतएव इसी शोक से ग्रस्त होने के कारण मेरी ऐसी खिन्न दशा हो गई है, आगे आप समर्थ हैं। यदि कुछ भी दया की दृष्टि से मेरी ओर देखेंगे तो मैं विश्वास रखती हूँ और साभिमान कह डालती हूँ कि मैं अवश्य अपने अभीष्ट को प्राप्त कर लूँगी। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथ जी के हृदय में और भी दया का प्रवाह आरम्भ हो चला। इसीलिये आपने अपनी झोली में हस्त डाला। उससे एक चुटकी विभूति की निकाल कर सरस्वती को प्रदानित की।
साथ ही कह सुनाया कि इसको अवश्य खा लेना इसके प्रभाव से तुम्हारे एक अद्वितीय पुत्र उत्पन्न होगा। उसके विषय में मैं यह तो प्रतिज्ञात्मक वाक्य नहीं कह सकता कि वह तुम्हारी सम्पत्ति का उपभोग करेगा परं यह अवश्य है कि तुम्हारे गृह में जन्म लेने से तुम्हारा और स्वयं उसका यश इस लोक में नहीं तीनों लोकों में प्रस्तृत हो जायेगा। और जिस प्रकार असंख्य तारागण के मध्य में चन्द्रमा बिराजमान है वैसे ही वह भी सर्वसिद्ध समाज में शिरोमणि हुआ सुशोभित होगा। बल्कि इतना ही नहीं यहाँ तक कि अनेक देव-दानव उसकी वन्दना किया करेंगे और हम उसको मंत्र प्रदान करेंगे। देखना कभी हमारे वचन में अविश्वास कर बैठे। इस विभूति को अवश्य खा लेना। हम लोग रमतेराम हैं। निष्प्रयोजन किसी एक जगह पर अधिक निवास करना उचित नहीं समझते हैं। अतः जाते हैं, बारह वर्ष में फिर यहाँ आयेंगे। भगवान् आदिनाथ करै तुम्हारा सदा ऐसा ही विश्वास बना रहे। इस प्रकार ब्राह्मणी को यथेष्ट सन्तोषित कर मत्स्येन्द्रनाथजी फिर तीर्थयात्रार्थ प्रस्थान कर गये। इधर सरस्वती ने सादर ग्रहण की हुई भस्मी को एक वस्त्र में बान्ध कर अल्मारी में रख दिया और वह गृहकायान्तर में व्यग्र हो गई। इतने ही में एक पड़ौसिन (समीपगृह वाली स्त्री) उसके गृह पर आई। उसको देखते ही सरस्वती के झटिति वह बात याद आ गई। अतः उसने उसके समक्ष कहा कि अये बहिन आज एक बड़े ही पहुँचे हुए महात्मा हमारे घर पर आये हैं। हमने उनको श्रद्धा के साथ विविध भोजन खिलाया था जिससे वे महात्मा अतीवानन्दित हुए। और अपने हस्त से एक चुटकी विभूति की मुझे दे गये। जिसके खाने से महा तेजस्वी लड़का उत्पन्न होगा। यह सुनकर पड़ौसिन बोली अये बहिन मैं तो आज तक यही जानती थी कि तू बहुत चतुर है। परन्तु आज मालूम हुआ कि तू तो प्रथमदर्जे की भोली है। भला कभी भसमी खाने से भी पुत्र हुआ करता है। यदि उस महात्मा की विभूति में पुत्र उत्पन्न करने की शक्ति होती तो तू प्रथम यही सोचकर देख वह अपनी उदर पूर्ति के लिये भिक्षा मांगता हुआ घर-घर क्यों फिरता। किसी एक जगह पर बैठकर ही सर्व सामग्रियों का उपभोग कर सकता था। अतएव मुझे तो विश्वास नहीं होता है कि वह जो कुछ कह गया है कहाँ तक सत्य है। आगे तेरी इच्छा भस्मी खाना अथवा न खाना। यह सुन सरस्वती ने कहा कि बहिन मैं भूल नहीं कर रही हूँ सच्च पूछिये तो मुझे तू ही भ्रम में पड़ गई मालूम होती है। महात्माओं का घर-घर भिक्षा माँगना और फिरना केवल अपनी उदर पूर्ति के निमित्त नहीं परोपकार के लिये ही समझना चाहिये। ये लोग अपने आप में जिस मनुष्य का विश्वास निश्चित कर लेते हैं उसका असाधारण उपकार कर डालते हैं। ठीक यही वृत्तान्त हमारे विषय में भी समझना उचित है। रह गई विभूति में पुत्रोत्पत्ति करणानुकूल शक्ति की बात, वह यदि हमारा विश्वास न हो तो शक्ति भी अशक्ति का कार्य कर सकती है। परन्तु यह बात नहीं है हमारा तो पूर्ण विश्वास है। इसीलिये इस विभूति की शक्ति हमारा कार्य पूरा करेगी, क्योंकि विश्वास में ही देव है संसार में यह बात किसी से छिपी नहीं है। इस प्रकार पड़ौसिन ने आभ्यन्तरिक ईष्र्या से सरस्वती की जो विभूति खाने में अश्रद्धा उत्पन्न करने का प्रयत्न किया था उसके वाक्य सुनने से सरस्वती के दृढ़ विश्वास में किंचित् भी शिथिलता न आई और उसने सश्रद्धा विभूति को खाही लिया। तदन्तर कतिपय दिन व्यतीत होने पर सरस्वती को स्वकीय हृदयस्थ गर्भ का अनुभव हो आया। जिससे उसके पूर्ण विश्वास में और भी दृढ़ता हो गई। अतएव वह प्रतिदिन मत्स्येन्द्रनाथजी के स्वरूप का ध्यान करती हुई आभ्यन्तरिक रीति से ईश्वर की कृपा दृष्टि के विषय में अनेक धन्यवाद प्रकट करने लगी। एवं यह भी चिन्तन करने लगी कि कब वह दिन आयेगा जिसमें पुत्र का मुख देखने से हमारा यह सांसारिक भोग सफल होगा। इसी तरह अनेक प्रकारके संकल्प करते-कराते पुत्रोपलब्धि का समय भी निकट आ पहुँचा। दोनों पति-पत्नि को अपने प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त होने लगी तथा उनको अपने विषय में समस्त प्रकार के शुभलक्षण दिखाई देने लगे। ज्यों ही प्रसवकाल अतिसमीप आ गया त्यों ही सुराज ने अपने अपर ग्रामनिष्ठ सम्बन्धियों के यहाँ सूचना दे दी। यह खबर होते ही बड़े साहस के साथ अनेक नर-नारियों ने उपस्थित हो सुराज के घर की शोभा बढ़ा दी। ठीक ऐसे ही अवसर पर दो ही दिन के बाद लड़का उत्पन्न हुआ मानों अर्ध रात्रि के समय अत्यन्त अन्धकार में चन्द्रमा का प्रादुर्भाव हो गया हो। जिसके असह्य तेज को देखकर एक बार तो सरस्वती तथा धाय आदि अन्य उपस्थित स्त्रियों के नेत्र बन्ध हो गये। यह देख परम् हर्ष के साथ सम्बन्धी घरों में सूचना दे दी गई। बस क्या था सूचना मिलते ही अनेक प्रकार के बाजे बजने लगे और मंगल गायन होने लगे। अनेक प्रकार से दान-पुण्य भी होने लगे। लक्ष्मी की अधिकता होने के कारण सुराज ब्राह्मण सहर्ष दान करता हुआ अपने मन में इतना आनन्द हो रहा था मानों आज उसे त्रिलोकीका राज्य मिल गया है। अस्तु। इसी प्रकार के आनन्दात्मक समुद्र में निमग्न हुए उसके 5 वर्ष व्यतीत हो चले। तब तो उसने विचार किया कि हम लोग ब्राह्माण हैं हमारा मुख्य कार्य प्रथम विद्या में कुशलता प्राप्त करना है। अतएव इस चिरग्राह्यरीत्यनुसार ऐसी अवस्था से ही लड़के को विद्याभ्यास के लिये नियुक्त कर देना सर्वथा उचित होगा। ऐसा परामर्श करते-करते कतिपय मास बीत गये परं अभी तक पुत्र को किसी विद्वान् के अर्पण नहीं किया। कारण कि उस समय उसके चित्त में दो प्रकार की खींचातानी हो रही थी। एक तो यह थी कि सुराज स्वयं महाविद्वान् और सदाचार निष्ठ वास्तविक ब्राह्मण था। अतः अपने ब्राह्मणत्व की रक्षार्थ पुत्र को किसी पण्डित के समर्पण करना चाहता था और पुत्र को भी अपने तुल्य सदाचारी बनाना चाहता था। द्वितीय यह थी कि प्रत्येक चेष्टाओं से पुत्र अत्यनत सुयोग्य मालूम होता था इसी हेतु से सुराज का लड़के के ऊपर अपरिमित मोह होने से अपने नेत्रों के आगे से उसको दूर भी करना नहीं चाहता था। अन्ततः उसने अगले दिन मैं अवश्य लड़के को विद्याध्ययन के लिये किसी विद्वान के अर्पण कर दूँगा ऐसा दृढ निश्चय करके इस विषय में अपनी पत्नि का भी मत लेना उचित समझा। आज का दिन व्यतीत हुआ। सायंकाल का आगमन होने पर भोजनादि से निवृत्त हो जब ब्राह्मण-ब्राह्मणी एक स्थाननिष्ट हुए तब अनुकूल अवसर जानकर सुराज ने उक्त प्रस्ताव किया। जिसके सुनते ही ब्राह्मणी कहने लगी कि नहीं मैं अभी बालक को कहीं नहीं भेजूँगी अधिक तो क्या मैं एक क्षण भी अपने नेत्रों से दूर करना नहीं चाहती हूँ। फिर यह भी बात है कि अभी तो यह बालक ही है व्यून से व्यून बारह वर्ष का तो होने दीजिए। अभी विद्या पढ़ने के लिए बहुत समय अवशेष हैं। इसके उत्तर में सुराज ने कहा कि विद्याभ्यास करने के लिए पाँच वर्ष की अवस्था से ही बालक को प्रयत्नलीन करना चाहिए। यह सर्व ऋषि-मुनियों ने स्वीकार किया है। फिर तू क्यों हठ करती है इत्यादि प्रकार से ब्राह्मणी को बहुत ही समझाया। परन्तु पुत्र की भूखी सरस्वती का पुत्र में इतना स्नेह था उससे उसका एकक्षण मात्र का वियोग भी नहीं सहा जाता था। यह देख आखिर ब्राह्मण भी निष्फल प्रयत्न होकर चुप बैठ गया। इसी प्रकार आठ वर्ष व्यतीत हो गये। बालक यद्यपि यथा समय खेल के लिये सहयोगियों के साथ क्रीड़ास्थल में भी अवतरित होता था तथापि अधिक समय गौओं की सेवा से ही सम्बन्ध रखता था। ब्राह्मणी तो चाहती थी कि यह घर से कभी कहीं बाहर न जाय परं वह सहर्ष गौओं की सेवार्थ अपने भृत्य के साथ-साथ क्षेत्र में भी चला जाता था। ठीक इसी प्रकार करते कराते जब पूरे एकादस वर्ष चले गये तब ब्राह्मण ने फिर प्रस्ताव किया और कहा कि ब्राह्मणी कुछ विचार किजिए क्या तेरा हठ वस्तुतः ठीक है यह कहने के लिए कोई सहमत होगा, कभी नहीं। तू चाहती थी कि लड़का मेरी दृष्टि के अभिमुख ही रहे परं कहिये क्या यह बात रही। यद्यपि यह गमनानुकूल क्रियाशून्य रहा तब तक तो अवश्य तेरी इच्छा पूर्ण होती रही तथापि अब कहिय क्या बालक को प्रतिक्षण दृष्टिगोचर ही रखती है। वह तो गोसेवासक्त हुआ जंगल में भी जाने लगा है। अतएव अब तो उसे विद्याभ्यास के लिए नियुक्त कर देना ही उचित है और एक विशेष वार्ता यह है सायद् तेरे ध्यान मे है वा नहीं, जिस पुज्यपाद योगेन्द्रजी की महती कृपा से हमने यह पुत्ररत्न प्राप्त किया है उसका कहना था कि मैं बारह वर्ष में वापिस लोटूँगा। अतएव उस महात्मा के आगमन से पहले अब इस बालक को अवश्य किसी पाठशाला में प्रविष्ट कर देना चाहिए। अन्यथा महात्माजी आयेंगे और बालक को विद्याविहिन देखेंगे तो अवश्य कोपान्वित होंगे। उनका कुपित होना हमारे लिए अमंगल का देने वाला है। यह सुन ब्राह्मणी ने लड़के को पाठशाला में भेज देने की सम्मति दे दी। अब तो सुराज सहर्ष पुत्र को लेकर पाठशाला में पहुँचा तथा एक सुयोग्य पण्डित के समीप जाकर कहने लगा कि अये विद्वान् हमारे पुत्र के ऊपर भी कृपा कीजिए और इसे विद्या में निपुण कर दीजिए। इसके प्रत्युकारार्थ हम आपको उचित पुरस्कार से प्रसन्न कर देंगे। पण्डितजी ने कहा कि तथास्तु आप सानन्द अपने घर जाइये। हम जहाँ तक होगा आपके पुत्र को विद्वान् बनाने के लिए कुछ उठा न रखेंगे। यह सुन अत्यन्त प्रसन्न मुख हुआ सुराज अपने घर आया। इसी प्रकार एक वर्ष और भी व्यतीत हो गया। ठीक इन्हीं दिनों उधर से अकस्मात् निर्दिष्ट समयावधि महात्माजी भी आ निकले। उन्हें देखते ही ब्राह्मण-ब्राह्मणी दोनों तथा अन्य प्राधूर्णिक सब लोग आपके चरणों में गिर गए और उन्होेंने आपको अत्यन्त आदर के सहित एक दिव्य आसन पर बैठाया। नाना प्रकार का भोजन भी कराया। बड़ी प्रसन्नता के साथ भोजन करने के अनन्तर भी मत्स्येन्द्रनाथजी ने सुराज से कहा कि हमने जो पुत्र दिया था वह कहाँ है। उसने उत्तर दिया कि भगवन् विद्याध्ययन के लिये विद्यालय में जाता है। आज भी वहीं गया है सायंकाल होने पर आयेगा। यदि आज्ञा हो तो अभी बुला भेजु। आपने कहा कि नहीं-नहीं ऐसी कोई विशेष आवश्यकता नहीं है सायंकाल ही सही जब आएगा तब ही हमने जो कुछ उसको कहना है सो कह लेंगे ठीक इसी समय जब की सुराज के घर यह वार्ता हो रही थी तब किसी ने विद्यालय में जाकर लड़के से कहा कि वे ही महात्मा बारह वर्ष के अनन्तर आज फिर तुम्हारे घर पर पधारे हैं। यह सुन तत्काल ही लड़के ने विनम्र प्रार्थनापूर्वक शिक्षक से स्वकीय घर जाने की आज्ञा ली तथा अनुमति मिलने पर वह शीघ्र ही उपस्थित हो योगेन्द्र जी के चरणों में गिरा। उसकी अतीवशील स्वभाव को सूचित करने वाली नम्रतायुक्त नमस्कार को देखकर मत्स्येन्द्रनाथजी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। अतएव उसको गोद में बैठाकर आप उसे कुशल वार्ता पूछने लगे। लड़के ने सुकोमल वाणि द्वारा उत्तर दिया कि भगवन् मैं इस समय विद्याभ्यास कर रहा हूँ आपसे अविदित नहीं स्वयं जानते ही हैं कि विद्या दुष्पार है। इतना होने पर भी आपका जब पूर्ण अनुग्रह है तो मैं विश्वास करता हूँ विद्या में कुछ न कुछ सफलता अवश्य प्राप्त कर लूँगा। यही नहीं मेरे लिये कुछ दिनों में दुष्पार भी विद्या सुपार हो जाएगी। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथ जी और भी आनन्दित हुए। और आन्तर्धानिक रीति से उसको मन्त्र प्रदान कर आपने अपना पूर्वोक्त वचन पूरा किया एवं यह कार्य सम्पादित कर फिर तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान किया। इधर प्रातःकाल होते ही स्नान भोजनादि से निवृत्त होकर लड़का पाठशाला में पहुँचा और विनम्र भाव से वद्धांजलि होकर शिक्षक से कहने लगा कि आज मुझे बहुत पाठ पढाओ। पण्डितजी ने मत्स्येन्द्रनाथजी के प्रदत्त मन्त्र की कुछ भी खबर नहीं थी। अतएव उसने कहा कि नहीं थोड़ा-थोड़ा पाठ पढ़ो जब कण्ठस्थ न हो तो अधिक पाठ लेने की कौनसी जरूरत है। इसके उत्तर में लड़के ने कहा कि नहीं-नहीं आप इस बात का कोई सन्देह न करें। आप जितना जो कुछ मुझे पढ़ायें उतना ही पश्चात् सुनते जायें। इस प्रतिज्ञा के अनुकूल यदि मैं आपको कर दिखलाऊँ तो कल पाठ देना अन्यथा नहीं। यह सुनकर पण्डितजी कुछ विस्मित हुए और स्वीय हृदयानुसार में संकल्प विकल्प उठा रहे थे कि क्या वस्तुतः लड़का सत्य बोलता है वा नहीं। यदि सत्य है तो यह कहने का प्रयोजन नहीं कि यह कोई साधारण पुरुष है। प्रत्युत कोई विचित्र शक्तिशाली देव ही किसी कारण से प्रकट हुआ है। परन्तु अन्त में विचारने लगे कि जो होगा सो अब प्रकट हो जायेगा प्रथम इसको पढ़ा कर तो देख लें। अतएव जब पण्डितजी लड़के को अधिक से अधिक पढ़ा चुके तब कहने लगे कि अब तो बहुत पाठ हो गया है यदि आगे पढ़ना है तो पहले इसे सुना दो। मत्स्येन्द्रनाथजी द्वारा प्रदत्त मन्त्र के प्रभाव से लड़के को हृदय प्रथम ही विद्या का भण्डार हो चुका था। अतः वह शिक्षक के पढ़ाये पाठ को प्रवाह से सुनाने लगा। जिसे सुनकर पण्डित जी को आत्यन्तिक आश्चर्य के समुद्र में निमग्न होना पड़ा। यही नहीं उसने यहाँ तक किया कि बड़ी शीघ्रता के साथ सुराजी के घर पहुँचकर सहर्ष उसके पुत्र की श्लाघा करने लगा। अस्तु। समग्रमनुष्यों की ओर से श्रद्धेय दृष्टि से देखा जाने वाला वह लड़का कुछ ही दिन में शिक्षक विद्याओं का पारदर्शी हो गया। यह देख सुराज ने सोचा कि लड़का पूरा विद्वान् हो गया है आगे और पढ़ने की तो आवश्यकता ही नहीं रही। एवं जो शास्त्रभिहित ब्रह्मचर्यावस्था है वह भी बीती जा रही है। अतएव अब तो इसका विवाह करने के लिये किसी सुयोग्य कन्या की गवेषणा करनी चाहिये। ठीक इसी विचार में लीन हुए उसके कतिपय दिन व्यतीत हो गये। उधर लड़के की बाल्यावस्था से ही गो सेवा में अधिक प्रीति थी। इसीलिये वह एक दिन अपने भृत्य के साथ ही गौओं और उनके छोटे-छोटे वत्सों से अनेक प्रैतिक व्यवहार करता हुआ जंगम में चला गया और गौओं का नोकर तो रक्षक है ही यह विचार कर एक वृक्ष के नीचे सो गया। वह कुछ ही देर सोने पाया था इतने में ही में उस वृक्ष के छिद्र में रहने वाले सर्प ने आकर उसको दंश लिया। तदनन्तर अधिक देर सूता देखकर उसको जगाने के लिये गोपाल वहां आया। आते ही देखता क्या है लड़का नहीं केवल लड़के का शरीर ही वहाँ पड़ा है और उसकी ऐसी दशा जिसका आवागमन पृथिवी पर दिखाई दे रहा है इस सर्प के ही कारण से हुई है। अन्ततः रोता पीटता और अत्यन्त निराश हुआ वह तो गौओं को लेकर ग्राम की ओर चला गया। इधर से ठीक अवसर पर भगवान् आदिनाथ और पार्वतीजी दोनों वहाँ आ निकले। एवं ज्यों ही उस वृक्ष के समीप पहुँचे त्यों ही वह मृतक लड़का उनकी दृष्टि गोचर हुआ। देखते ही पार्वतीजी ने कहा कि महाराज कैसा सुन्दर लड़का मरा पड़ा है। यदि आप इसको सजीव कर देंगे तो इसके माता-पिता आपको असंख्य धन्यवाद देंगे। श्रीमहादेवजी पहले ही यह चाहते थे और इसी काय्र के लिये इधर आये थे। अतएव आपने खैर मुझे इसके माता-पिता तो धन्यवाद देंगे वा न देंगे पर इसको तो जिलाही देता हूँ। यह कहकर देवी का प्रस्ताव स्वीकृत करते हुए उसे सन्तोषित किया और अपने तृतीय नेत्र के अवलोकन द्वारा प्रथम मृतक लड़के के शरीर को भस्मप्राय बनाकर मन्त्र प्रभाव से फिर सजीव कर दिया। तत्काल ही वह सचेत हो उठा और उसने अपने सम्मुख खड़ी दो अलौकिक व्यक्तियों को देखा। देखते ही अत्यन्त कृतज्ञता के साथ वह उनके चरणों में गिरा। इससे प्रसन्न हो श्री महादेवजी ने उसको एक अमूल्य मन्त्र दिया जिसके प्रभाव से उसका अपने ग्राम और माता-पिता की ओर कुछ भी स्नेह न रहा। अतएव वह जब श्री महादेवजी कैलास को रवाने हो गये तब स्वयं भी ग्राम की तरफ न जा कर किसी वनस्थ ऐकान्तिक स्थान की अन्वेषणा करने लगा। इसी प्रकार भ्रमण करते-करते जब कतिपय दिवस व्यतीत हो गये तब एक दिन उसे श्री मत्स्येन्द्रनाथ जी भी उसी वन में मिल गये। लड़के ने महात्माजी को देखते ही उनके चरणों का आश्रय लिया तथा कहा कि भगवन् मुझे भी आप अपना शिष्य बना लें, क्यों कि अधिक विलम्ब होने से अब में अपना मंगल नहीं देखता हूँ। मत्स्येन्द्रनाथजी यह पहले से ही चाहते थे और इसी प्रतीक्षा में फिरते थे। अतएव उसकी अभ्यर्थना सुन आप अतीवानन्दित हुए और समस्त वृत्तान्त जानते हुए भी उसे भूलाकर उसका परिचय पूछने लगे। उसने आदि से अन्त तक जो उसके साथ बीत चुका था समस्त समाचार कह सुनाया। तदनु मत्स्येन्द्रनाथजी ने पूछा कि क्या तू मुझे भी पहचानता है। उसने कुछ मुस्कराते हुए कहा कि भगवन् यद्यपि अब से पहले मैं कुछ भ्रम में पड़ा हुआ था तथापि आपके इस प्रश्न से मेरी वह दशा न रही। अब तो मैं आपको केवल पहचान ही नहीं गया अच्छी तरह यह समझ गया हूँ कि संसार में मेरा सर्वस्व आप ही हैं। उसके इस कथन से मत्स्येन्द्रनाथजी का हृदय और भी प्रफुल्लित हो गया और उन्होंने उसको अपना अनुयायी बनाने का निश्चय कर लिया। एवं कुछ ही दिन के बाद उन्होंने जो वेष गुरुजी से प्राप्त किया था सभी उसको दे दिया और उसको स्व समीपस्थ गुरुपलब्ध समस्त योग विद्या, सागर विद्या, तथा आस्त्रिक विद्याओं में भी निपुण कर दिया। एवं कहा कि तुम्हारी गो सेवा में अधिक प्रीति रही है अतः हम तुम्हें आज से  ’ गोरक्षनाथ नाम से सत्कृत करते हैं,  संसार में तुम्हारी इसी नाम से प्रसिद्धि होगी। यह सुन अत्यन्त श्रद्धा के साथ सिर झुकाकर गोरक्षनाथजी ने गुरुजी के उपकार पर कृतज्ञता प्रकट करी।

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