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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Saturday, July 27, 2013

श्रीनाथ भिक्षार्थ पर्यटन वर्णन

अध्येतृवर्ग ! आपको सूचित किया जाता है कि श्रीनाथजी कालीकोट से गमन करने के अनन्तर वि.सं. 400 तक दक्षिण भारतीय एवं उत्तर भारतीय प्रत्येक प्रान्तों में भ्रमण करते रहेंं। यद्यपि आपने इस दीर्घकाल का कतिपय स्थलों में समाधि के द्वारा अन्य सर्वत्र योगोपदेश के द्वारा अतिक्रमण किया है। और अधिकारी पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये अनेक यथा सम्भावित चमत्कारों का उद्घाटन किया है। तथापि ग्रन्थ बुद्धि भय से मैं उन सब का व्यास न करता हुआ केवल समासतया मुख्य घटनाओं को ही आपके समक्ष कर देना समुचित समझता हूँ। श्रीनाथजी देश-देश और प्रान्त-प्रान्त में अपने उद्देश्य का सम्यक्तया निरीक्षण कर आज बहुत दिन के बाद फिर उसी आधुनिक टीला प्रसिद्ध पहाड़ पर आरूढ़ हुए। यहाँ भी कुछ काल पर्यन्त फिर सामाधिक अवस्था का अनुभव करने के अनन्तर आप हिमालय पर्वत की ओर अग्रसर हुए। जो त्रिविध दुःखाक्रमणहत पराक्रम सांसारिक पंकपतित निज जनों को उद्धृत करने के अभिप्राय से अनेक विध विचित्र चरित्रों का उग्दार करते हुए कुछ दिन में ज्वालादेवी के स्थान पर पहुँचे। वहाँ देवी के प्रकट हो आपको साक्षात् दर्शन दिया। तथा कुशल वार्तादि विषयक गौष्ठिक प्रश्नोत्तर के अनन्तर उसने आपको भोजन करने के लिये सूचित किया। आपने कहा कि इस बात के लिये तो क्षमा करनी होगी। हमको भोजन की नहीं केवल आपके दर्शन की ही क्षुधा थी सो निवृत्त हो गई। देवी ने कहा कि खैर यह तो कुछ बात नहीं दर्शन की क्षुधा दर्शन से और भोजन की क्षुधा तो भोजन से ही निवारित होती है। यदि मेरी प्रार्थना को अमोघ बनाना चाहें तो आप क्षुधा के बिना भी थोड़ा बहुत ग्रहण कर ऐसा कर सकते हैं। परं आपके नासिका संकुचित कर सहसा नाटने से मुझे और ही कुछ रहस्य प्रतीत होता है। अतएव आप कृपा कर यथार्थ वृत्तान्त प्रकट कर भोजनादि की स्वाभाविक इच्छा नहीं होने से आप अनंगीकार करते हैं या अन्य कारण से यदि कोई अन्य ही कारण। है तो मैं उसका भी ठीक प्रबन्ध कर अनुकूल व्यवस्था स्थापित कर सकती हूँ। आपने कहा कि रहस्य प्रतीत होने पर भी आप पूछने का आग्रह करती हैं तो हम स्फुट ही कर देते हैं। भोजन अस्वीकार का हेतु यह है कि हम लोग योगी हैं हमको आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार का शुद्धतात्मक नियम प्रथम ही दृढ़तया धारण करना पड़ता है। ऐसी दशा में आपका भोजन जो, मांस-मदिरा से विरहित नहीं है, हम ग्रहण कर लें तो हमारी क्रमशः दोनों प्रकार की शुद्धि जाती रहे। ऐसा होने पर ज्यों-ज्यों हमारी कालचय्र्या यापित होती जायेगी त्यों-त्यों हमको अपने अधःपतन का मुख देखना पड़ेगा। अतएव आपके इस भोजन को हम स्वयं ग्रहण न करते हुए यह चेतावनी देते हैं कि आपको भी ऐसे भक्ष्य के लिये अधिक लालायित नहीं होना चाहिये। खैर यह भी रहो आपका किया शुभाशुभ कृत्य हमारे गले नहीं पड़ सकता है परन्तु इतनी तो कृपा ही रखना फिर किसी योगी को ऐसे भोजन प्रदान के लिये आमन्त्रित नहीं करना। ऐसा हुआ तो समझ लो आप हमारे शाप की पात्र बन जायेंगी जिससे आपकी यह संसार व्यापी प्रतिष्ठा जो आज हो रही है समस्त धूलि में मिल जायेगी। रह गई अन्य प्रबन्ध करने की बात, यह यदि करना चाहें तो हमारी इच्छानुसार करना होगा। देवी ने कहा कि योगिराज जी आप जानते ही हैं मैं ऐसे भोजन से विशेष घृणा तो नहीं किया करती हूँ परं आभ्यन्तरिक इच्छा से यह नहीं चाहती कि लोग मुझे ऐसे ही भक्ष्य प्रदान किया करें। किन्तु समयानुसार लोगों की बुद्धि का परिवर्तन होने लगा है जिससे वे कुछ तो मेरे बहाने से और अधिक अपने जिव्हास्वादन के वशंगत होने से बहुलतया इसी भक्ष्य को व्यवहृत करने लगे हैं। उनकी आन्तरिक मुझ विषयक श्रद्धा तो न्यून और इस भक्ष्य व्यवहार में प्रवृत्ति अधिक देखकर मैं उनकी प्रार्थना पर ध्यान भी कुछ ऐसा ही देने लगी हूँ। जिससे वे अपनी अभीष्ट सिद्धि से हस्त धो बैठने पर भी केवल इस भक्ष्यास्वादन से ही आनन्द मना लेते हैं। इस प्रकार अपना परिश्रम निष्फल देखते हुए भी लोगों में जिव्हास्वादन होना अत्यन्त दुष्कर है। आप अपने विषय में मुझे आज्ञापित करें भोजन के लिये कैसे प्रबन्ध की आवश्यकता है जिसको शीघ्र सम्पादित कर आपके अतिथि सत्कार से अनृण होकर कर्तव्य पालना में उत्तीर्ण हो जाऊँगी। यह सुन श्रीनाथजी ने कहा कि यदि यही बात है तो तुम्हारा अतिथि सत्कार तो पूर्ण हुआ जो कि हमने सहर्ष स्वीकृत किया। परं एक काम करना चाहिये और वह यह है कि हमारी दालभात वा खिचड़ी बनाने की अभिलाषा है जिसमें जल आपका और अन्न हमारा होगा। आप किसी पात्र में जल चढ़ाकर उसको जब तक हम भैक्षेयाअन्न लेकर आवें तब तक उबालदियें तैयार रखना। साथ ही इस बात का भी स्मरण रखना कि हमारा वापिस लौटना हमारी इच्छा पर ही निर्भर रहेगा। अतएव इस विषय में शीघ्र प्रतीक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। हम कभी लौटें तब तक आपको इस वृत्तान्त का स्मारक रूप होकर तादवस्थ रहना होगा। भगवती ज्वालादेवी ने आपकी यह आज्ञा सहर्ष स्वीकार की। और आपको भिक्षार्थ पर्यटन करने के लिये यहाँ से विदा किया। मेरे श्रीपदभाक् पूज्य तथा स्वस्ति पदभाक् सुहृद्, पाठक महानुभाव ! जी हाँ। आइये इस वृत्तान्त के लिखते-लिखते जो मेरा हृदय विक्षिप्त हो गया है इसको शान्ति देने के लिये कुछ क्षण पारस्परिक परामर्श कर लें। और नेत्रों की अश्रुपातात्मक वर्षा को जब तक हो होने दे लें। नहीं तो सम्भव है इस वर्षा से कापी के प्लावित होने पर अधिक देर कार्य स्थगित करना पड़ेगा। पाठक, कहिये और चलिये किस विषय में चलना है। अनुवादक, चलना तो किसी विषय में नहीं मैं केवल आप से यहीं पूछना चाहता हूँ क्या आप बतलाने की कृपा करेंगे कि श्रीनाथजी ने ज्वालादेवी का भोजन अस्वीकार कर यह स्मारक चिन्ह, जो आज तक विद्यमान है, क्यों स्थापित किया था। पाठक, आप ही बतलाइये हम तो केवल इतना ही जानते हैं जैसा कि सुनने में आता है कि श्रीनाथजी देवी को हांडी के नीचे अग्नि जलाते रहने की आज्ञा प्रदान कर स्वयं भिक्षार्थ भ्रमण करने को चले गये थे। बस इससे अधिक हम और कुछ नहीं जानते हैं एवं न कभी जानने की अत्युत्कट अभिलाषा ही की है। अनुवादक, अच्छा मैं बतलाता हूँ कृपया ध्यान से पढि़ये पढि़ये ही नहीं समझिये और अपने उत्तराधिकारियों को समझाने की कृपा कीजिये। श्रीनाथजी ने इस अभिप्राय से उक्त वृत्तान्त की स्थापना की है। उन्होंने हमको चेतावनी देते हुए समझाया है कि हे योगियों ! तुम्हारा अपने नैयमिक शौचत्व की रक्षार्थ शुद्ध भोजन स्वयं बनाकर अथवा अन्यत्र भिक्षा मांग कर ग्रहण कर लेना तो सर्वथा उचित होगा परं अभक्ष्य भक्षण के ग्रहणार्थ हमारी तरह नासिका संकुचित न कर आगे हस्त बढ़ाना कभी उचित नहीं समझा जायेगा। बल्कि इतना ही नहीं हस्त बढ़ाया तो समझ लो मनुष्यत्व से वंचित कर दिये जाओगे। अतएव ज्वालानिष्ठ इस स्मारक चिन्ह से स्मारक चिन्ह से सूचित होने वाली चेतावनी पर दृढ़ विश्वास रखता हुआ जो महानुभाव अभक्ष्य पदार्थ के विषय में हमारा अनुकरण करेगा वही हमारी सन्तान और अपने आपको गोगी कहलाने के योग्य हो सकता है। अन्यथाकार करने वाले वाले का कोई अधिकार नहीं कि वह योगी, इस महा गौरवान्वित शब्द से सुशोभित होने के लिये अग्रसर हो। धन्य है श्रीनाथजी आपको धन्य है एक बार नहीं अनेक बार धन्य है। आपने अपनी सन्तान को हर एक तरह से सन्मार्ग की ओर चलाने के निमित्त कुछ भी उठा नहीं रखा है। परन्तु खेद है आपकी सन्तति आधुनिक योगि समाज में अधिकांश ऐसे मनुष्य प्रविष्ट हो गये हैं जिन्होंने अपने नेत्रों के ऊपर पट्टी बान्ध लई है। यही कारण है वे आपकी प्रत्यक्ष भी इत्यादि चेतावनियों पर कुछ भी दृष्टिपात नहीं करते हैं। और अभक्ष्यास्वादन में लोलुप हुए उसके ग्रहणार्थ हस्तप्रसृत कर आपकी आज्ञा को उपेक्षित करते हैं। बल्कि यही नहीं कि वे नींच से नींच शब्दवाच्य पुरुष स्वयं ही ऐसा करते हों प्रत्युत अपनी चाटूक्तियों से अवरूद्ध हुए भोले-भाले सेवकों को भी उन अभक्ष्य पदार्थों के ग्रहणार्थ विवश करते हैं और उनको भयानक वाक्य सुनाते हैं कि वाह-वाह यह तो भैरूंका वा देवी का खाजा ही है इसको स्वीकार न करोगे तो भैरूं वा देवी तुम्हारे ऊपर प्रसन्न नहीं होंगे, जिससे तुम्हारा अनुष्ठान निष्फल हो जायेगा। आखिर वे विचारे क्या करें। किसी आशा की पिपासा से वंशगत हो सेवक विचारों को इनके नरकोत्पादक जटिल जाल से जकड़ी भूत होना ही पड़ता है। खैर कुछ भी हो इन योगी नाम को दूषित करने वाले यवन संस्कारी पुरुषों के जाल में बद्ध होने से पहले सेवक महानुभावों को श्रीनाथजी की चेतावनी पर विशेष ध्यान देना चाहिये। उनकी आज्ञा से विरूद्ध अनुष्ठान करने पर इन कालियुगिक जीवों के देवता भैरूं और देवी तो बात ही क्या है सृष्टिकत्र्ता ब्रह्मा भी प्रसन्न होने के लिये समर्थ नहीं है। इस वास्ते सेवक लोगों और वंचित योगियों को चाहिये कि ऐसे लोगों को को कर्णच्छिद्री देखकर योगी न समझ बैठें। ये तो संसार में देवी और भैरु के नाम से अन्यथा डींग हांक कर केवल अस्थि चूषने के लिये ही अवतरित हुए हैं। अहो अविद्ये ! तुझे नमस्कार है 3 तू जितनी दूर रहे उतना ही शुकर है। अब भी यदि तेरी भेंट पूरी हो गई हो तो कृपा कर दे और जहाँ तक तेरा प्रसार हो चुका है वहीं तक में सन्तोष कर ले। ऐसा करने से तेरा बड़ा ही उपकार होगा। नहीं तो सम्भव है पूज्यपाद योगेन्द्र गोरक्षनाथजी आदि महानुभावों की कुछ ही अवशिष्ट रही कीर्ति समस्त रसातल में पहुँच जायेगी। क्या तुझे मालूम नहीं जिस योगी नामधारी के ऊपर तेरी छाया पड़ती है वह चाहे पृथिवी उलट-पलट हो जाय परं, जिसके मुख पर भैरुं का प्याला सुशोभित नहीं हुआ है वह सच्चा योगी नहीं है, यह कहता हुआ कुछ भी आगे-पीछे नहीं देखता है। अतएव भगवती प्रकृते ! मैं फिर तुझे नमस्कार करता हूँ तथा तेरे चरणों में मस्तक स्पर्शित करता हूँ तू मेरी विनम्र वन्दना पर कुछ ध्यान दे और क्षमा कर। योगिसमाज का पीछा छोड़ दे। अब तो इसकी प्रतिष्ठा निःसन्देह रसातल में पहुँचने वाली है। इस समाज के विषय में जो, संसार कभी यह भावना रखता था कि जरासी तिरछी दृष्टि होने पर न जानें यह क्या कर बैठेगा, आज वही संसार इसके पीछै ताड़ी बजाता हुआ धूलि फैंकता है। यह क्या बात है और कुछ नहीं सब तेरी कृपा है। अतः क्षमा कर तेरी बहुत दाल गल चुकी है। अब तो तुझे चाहिये कि तू अपनी छाया को संकुचित कर ले। मैं हृदय से तुझे विदा करता हूँ। और यह अच्छी तरह जानता हूँ कि तू अत्यन्त बलवती है। जिसने चेतन शक्ति को भी इस प्रकार अपने हसत का खिलौना बनाकर इच्छानुसार नचा रखा है। (अस्तु) पाठक ! कृपा कीजिये और पूर्व प्रकरण में ध्यान दीजिये। श्रीनाथजी ज्वालाजी से प्रस्थान कर नीचे के अनेक प्रान्तों में इधर-उधर भ्रमण करने लगे। एवं पूर्व दिशा के अभिमुख हो मार्गागत नगर ग्रामों के लोगों को भिक्षा प्रदान करने के लिये सूचित करने लगे। परन्तु पाठक ! स्मरण रखना श्रीनाथजी ने केवल भिक्षा लेने के लिये सूचित करने लगे। परन्तु पाठक ! स्मरण रखना श्रीनाथजी ने केवल भिक्षा लेने के लिये पात्र हस्त में धारण नहीं किया था। यदि ऐसा ही होता तो यह कहने का प्रयोजन नहीं उनको वहाँ भिक्षा नहीं मिल सकती थी। किन्तु उन्होंने तो, हमने देवी का त्याज्य भोजन ग्रहण नहीं किया इसी प्रकार कोई भी योगी ग्रहण न करै, इस बात को भविष्य के लिये स्मारक चिन्ह बनाना था। अतएव आप इतनी भिक्षा मांगते थे जिसकी पूर्ति कोई नागरिक वा ग्रामीण पुरुष न कर सकता था। वे लोग अपनी श्रद्धानुसार जितनी कुछ भिक्षा समर्पित करते थे उससे आपका पात्र छोटा-सा होने पर भी मन्त्र संशोधित होने के कारण भरपूर नहीं होता था। आपके इस पात्र की जो, सेर अन्न के परिमाण वाला दीखने पर भी कतिपय मण अन्न को हजम कर जाता था, यह शक्ति देखकर लोग बड़े ही विस्मत होते थे। तथा योग के महत्त्व की दुर्विंज्ञेय लीला बतलाकर हस्त से हस्त विमर्दन करने लगते थे। यह देख मन्द मुस्कराते हए आपने कहा कि अये सेवक लोगों ! इस पात्र के विषय में हमारा यही वरदान है कि जब कोई इतना अन्न प्रदान कर दे जितना कि हम मांग रहे हैं तभी तू सुभर हो ना अन्यथा नहीं। यही कारण है जब तक यह अपनी मांग पूरी नहीं देखता तब तक उससे न्यून पारिमाणिक अन्न से पूर्ण नहीं होता है। यह सुन उपायान्तराभाव से विचारे वे लोग मौन ही रह जाते थे। और आप अग्रिम मार्ग का अनुसरण करते थे। इसी प्रकार अपने रंग में मस्त हुए आप कुछ दिन के अनन्तर मानपुर (आधुनिक प्रसिद्ध गोरखपुर) में पहुँचे। और मान तालाब पर आसन स्थिर कर आपने इसी याचना को नगर में प्रचारित किया। अधिक क्या अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार भिक्षा प्रदान करने के लिये बहुसंख्यक लोग उपस्थित हुए। परन्तु पूर्व की तरह आपका पात्र अपनी पूर्ति का मुख न देख सका। ठीक इसी अवसर पर एक महानुभाव, जो पाटन नगर का रहने वाला था और यहाँ किसी कार्यवश से आया हुआ था, विनम्र भाव से अभ्यर्थना करता हुआ बोल उठा। भगवन् ! यदि इतने अन्न से भी, जितना कि लोगों ने देना स्वीकार किया है, आपका पात्र पूर्ण नहीं होगा तो मैं नहीं जानता इसको कितने और अन्न की आवश्यकता है। परं इतना मैं अपनी ओर से कर देता हूँ कि आप अपने चरणरज से मेरे नगर को पवित्र करें तो मेरी कतिपय लक्ष रुपये की सत्ता है अपने सहित आपके समर्पण कर दूँगा। यदि उस समग्र सामग्री वैक्रयिक अन्न से आपका प्रयोजन कुछ सिद्धि प्राप्त कर ले तो मैं अपने आपको धन्य ही नहीं कृतकृत्य समझ लूँगा। कारण कि उसके भोक्ता पुत्र का अभाव होने से मुझे मरणावसर में भी यही सन्देह करना पड़ेगा कि न जाने किन-किन अनर्थों में उस द्रव्य का उपयोग होगा। उनकी अपेक्षा मेरे उपस्थित रहते हुए ही वह आपके पवित्र कार्य का सहायक बन जाय तो इससे उत्तम और क्या हो सकता है। यह सुन कुछ मुस्कराते हुए श्रीनाथजी ने कहा कि धन्य है वीर-पुरुष तुझे धन्य है। इतने भ्रमण में तन-मन-धन से हमारे पात्र को पूरा करने की चेष्टा वाला एक तू ही वीर पुरुष निकला है। परं यह ध्यान रखना हमने भिक्षा लेना नहीं कोई अन्य प्रयोजन सिद्ध करना था सो हो चुका है। तुम अपनी सत्ता को अपने अधीनस्थ रखते हुए भुक्त बनाओ। यदि पुत्राभाव से यह उपभोग सुखमय प्रतीत न होता हो तो यह त्रुटि पूरी करनी बड़ी बात नहीं है। पाठक ! अधिक न कहकर हम केवल इतना ही कह देना समुचित समझते हैं वह महानुभाव मुमुक्षु था। अतएव उसने, महाराज ! आपको तीनों चीज अर्पण करने का वचन दे चुका हूँ इससे पीछे हटकर मैं अपना कल्याण नहीं देखता हूँ, इस बात का हठकर आपका आश्रय ग्रहण किया। उसको इस प्रकार अपने वचन की पालना में दृढ़ हुआ देखकर श्रीनाथजी उसके ऊपर प्रसन्न हो गये। और कहने लगे कि हम पाटन में आयेंगे। तुम जाओ तब तक अपने सत्त्व का ठीक प्रबन्ध कर स्त्री आदि सुहृद्गण को भी सन्तोषित करो। ऐसा होने पर निःसन्देह तुम हमारी संगति में प्रविष्ट हो सकोगे। आपकी इस आज्ञा पर शिर झुकाकर वह उसी समय वहाँ से प्रस्थानित हो गया। इधर आप यहाँ से उठकर कुछ दूर-पश्चिम की ओर एक अनुकूल स्थल पर जा विराजे। यहाँ तक तृण की कुटी तैयार कराकर आपने लोगों को आज्ञापित किया कि जो कोई जितना अन्न देना चाहे इसमें लाकर डाल दे। यह आज्ञा पाते ही सब लोग जिसकी जितनी शक्ति थी उसके अनुसार दाल-चावल लेकर आपकी सेवा में उपस्थित हुए। कुछ ही देर में वह कुटी निरवकाश हो गई। यह देख आपने आज्ञा दी कि आस-पास के ग्रामों में जहाँ तक हो सकै सूचना भेज दी जाय। गरीब लोग जितनी आवश्यकता हो उतना अन्न उठा ले जायेंगे। लोेगों ने अग्रिम दिन आपकी यह आज्ञा पूरी कर दी। परुत् दिन इस अन्न के ग्राहक लोगों के झूण्ड के झूण्ड आ खड़े हुए। श्रीनाथजी, लोगों के द्वारा उनके आनीत अश्वगर्दभादि बाह्य वस्तुओं में अन्न भराने लगे। अधिक क्या जितना अन्न नगर के लोगों ने आपके समर्पित किया था उसका कई गुणा खर्च करने पर भी कुटिया टस से मस न हुई। यह देखते हुए लोग अत्यन्त विस्मयात्मक अर्णव में गोते लगाने लगे। तथा परस्पर में वार्ता करने लगे कि देखो योगियों की कैसी अगम्य लीला है। इनको दिया तथा इनसे लिया न जाने कहाँ जाता और कहाँ से आता है। जब हम इनके पात्र में डालते हैं तब तो वह भरने में नहीं आता है एवं इनकी कुटी से निकालते हैं तो यह रिक्त होने में नहीं आता है। अथवा ठीक है योग से अगम्य कोई वस्तु नहीं है। इस प्रकार की धीरता से होने वाला उनका यह आलाप श्रीनाथजी के भी श्रोत्रगत हो गया। अतएव आपने, लो कुटी हम रिक्त कर देते हैं तुम क्यों आश्चर्य करते हो, यह कहकर परिपक्व करने के लिये कुछ तो मिश्रित दाल-चावल पृथक् निकलवा लिये अवशिष्ट अपने पात्र में विलीन कर लिये। और एक कटाहा मंगाकर रक्षित अन्न को पक्व बनाने की आज्ञा दी। कुछ ही देर में यह कार्य सफल हो गया। प्रथम आपने खिचड़ी ग्रहण की। अनन्तर जन पंक्ति में वितीर्ण की गई। उपस्थित कतिपय सहस्र मनुष्यों की क्षुधा शान्त करने पर भी कटाह ने अपना तलीय भाग नहीं दिखलाया। अन्ततः जब समस्त मनुष्य भोजना दान से लब्धावकाश हो गये तब आपने सम्बोधन करते हुए लोगों को अपने इस कृत्य का यथार्थ उद्देश्य सुनाया। और कहा कि यद्यपि समय का प्रवाह अपना प्रभाव अवश्य दिखलायेगा तथापि यह कहने का प्रयोजन नहीं कि उस प्रभाव में प्रवाहित न होने के लिये कोई वंचित रहना चाहेगा तो नहीं रह सकेगा। किन्तु वह उससे वंचित रहता हुआ हमारे मार्ग का स्मारक भी बना रह सकेगा। खैर जो भी कुछ हो हमारे अनुयायी कहलाने वाले सज्जन समय के चक्र में न पड़ जाये हमने इसी अभिप्राय से देवी ज्वालाजी के त्याज्य भोजन को अस्वीकार कर भिक्षापात्र हस्त में धारण करते हुए इस वृत्त का उद्गार किया है। आशा है आप लोग भी इस स्मारक चिन्ह को सम्भवित अनुकूलता के साथ ’ प्रचलित रखेंगे। आपके इस कथन पर शिर झुकाते हुए लोगों ने वाचनिक नियम किया। जिससे आप अत्यन्त प्रसन्न हुए और लोगों को हार्दिक आशीर्वाद प्रदान कर देवी पाटन की ओर प्रस्थान कर गये। आगे उक्त महानुभाव गृह प्रबन्ध की ओर से सर्वथा निश्चित हो आपके शुभागमन की प्रतिपालना कर ही रहा था। उसने स्वागतिक होते ही अपना शरीर आपके समर्पण कर दिया। आप उसको सादर ग्रहण कर उत्तर की और बढ़े। और धवलगिरि नामक पर्वत पर जाकर उसको अपने गृह की कंजी बतलाने लगे।
इति श्रीनाथ भिक्षार्थ पर्यटन वर्णन ।

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